
नई
दिल्ली.
कैमलिन
की
पेंसिल,
इरेजर,
मार्कर,
स्याही
और
रंग
हर
बच्चे
ने
इस्तेमाल
किए
हैं.
स्टेशनरी
के
इस
ब्रांड
ने
स्कूलों
में
ऐसी
जगह
बनाई
कि
उसे
रिप्लेस
कर
पाना
आसान
नहीं
है.
इसके
क्वालिटी
प्रोडक्ट
हर
बच्चे
और
उसके
पेरेंट्स
को
पसंद
आते
हैं.
ताजा
खबर
ये
है
कि
सुभाष
दांडेकर
इस
दुनिया
को
अलविदा
कह
गए
हैं.
सोमवार
को
सेंट्रल
मुंबई
में
सुभाष
दांडेकर
का
अंतिम
संस्कार
कर
दिया
गया.
महाराष्ट्र
के
उपमुख्यमंत्री
देवेंद्र
फड़णवीस
ने
उनकी
मृत्यु
पर
गहरा
शोक
जताया
है.
आज
हम
सुभाष
दांडेकर
की
पूरी
कहानी
बताने
जा
रहे
हैं.
सुभाष
दांडेकर
ने
कैमलिन
ब्रांड
को
एक
जापानी
कंपनी
कोकुयो
को
बेच
दिया
था.
तब
से
अपनी
मृत्यु
तक
दांडेकर
कोकुयो
कैमलिन
के
मानद
चेयरमैन
रहे.
कैमलिन
की
स्थापना
1931
में
हुई.
सुभाष
दांडेकर
के
पिता
दिगंबर
परशुराम
दांडेकर
और
उनके
भाई
गोविंद
दांडेकर
ने
की
एक
कंपनी
बनाई
थी.
उस
कंपनी
का
नाम
दांडेकर
एंड
कंपनी
रखा
गया
था.
पहला
प्रोडक्ट
हॉर्स
ब्रांड
की
एक
स्याही
थी,
जोकि
टिक्कियों
और
पाउडर
में
फॉर्म
में
बेची
जाती
थी.
कुछ
भले
लोगों
ने
टूटने
नहीं
की
कंपनी
आज
यह
कंपनी
बेशक
करोड़ों
रुपये
की
वैल्यूएशन
रखती
है,
मगर
शुरुआती
डगर
काफी
मुश्किल
भरी
रही.
दांडेकर
परिवार
ने
स्याही
का
कारोबार
तो
शुरू
कर
लिया
था,
लेकिन
सामने
आने
वाली
मुसीबतों
का
अंदाजा
उन्हें
नहीं
था.
एक
फैक्टरी
लगाकर
कुछ
मात्रा
में
स्याही
बनाना
काफी
महंगा
साबित
हो
रहा
था,
जबकि
विदेशों
से
मंगाई
गई
स्याही
सस्ती
पड़
रही
थी.
दरअसल,
इम्पोर्ट
पर
सरकार
की
तरफ
से
टैक्स
छूट
दी
गई
थी.
इसके
अलावा
विदेशों
से
भारत
में
स्याही
भेजने
वाली
कंपनियां
बड़े
स्तर
पर
स्याही
बनाकर
लागत
को
कम
कर
सकती
थीं.
भारत
में
स्याही
बनाने
वाली
कंपनियों
के
पक्ष
में
ऐसे
हालात
नहीं
थे.
ऐसे
में
दांडेकर
बंधुओं
को
लगा
कि
स्याही
का
कारोबार
लम्बे
समय
तक
नहीं
चल
पाएगा.
यही
सोचकर
उन्होंने
अस्थायी
रूप
से
काम
ठप
करने
का
विचार
बनाया.
हालांकि
कुछ
भले
लोगों
ने
उन्हें
ऐसा
न
करने
का
अनुरोध
किया
और
दिलासा
दिया
कि
वे
महंगे
दामों
पर
स्याही
खरीदेंगे.
इसी
दिलासा
के
भरोसे
दांडेकर
बंधुओं
का
स्याही
का
प्रोडक्शन
जारी
रहा.
सुभाष
दांडेकर
ने
बदल
दिया
पूरा
गेम
सुभाष
दांडेकर
ने
1968
में
कैमलिन
को
ज्वाइन
किया
था.
उनकी
एंट्री
के
बाद
कंपनी
में
बदलाव
का
एक
दौर
शुरू
हुआ.
उन्होंने
कंपनी
के
प्रोडक्ट्स
की
रेंज
को
विस्तार
देने
का
काम
किया,
कंपनी
के
काम
करने
के
तरीके
को
माडर्न
बना
दिया.
उनकी
अगुवाई
में
कंपनी
ने
आर्ट
मैटिरियल
मार्केट
और
स्टेशनरी
की
दुनिया
में
दबंगई
हासिल,
जोकि
आजतक
बनी
हुई
है.
कैमलिन
का
तेजी
से
ग्रो
करने
का
श्रेय
सुभाष
दांडेकर
को
जाता
है.
यूं
बड़ी
होती
गई
कैमलिन
1931:
मुंबई
में
‘दांडेकर
एंड
कंपनी’
की
शुरुआत
हुई.
1946:
दांडेकर
एंड
कंपनी
का
नाम
बदलकर
‘कैमलिन
लिमिटेड’
किया
गया.
इसी
समय
फाउंटेन
पेन
की
स्याही,
एडहेसिव,
और
स्टेशनरी
के
अन्य
सामान
लॉन्च
किए
गए.
1958:
कैमलिन
प्राइवेट
लिमिटेड
कंपनी
बन
गई
थी.
ड्राइंग
और
लिखने
की
सामग्री
बनाना
शुरू
किया.
छात्रों
और
प्रोफेशनल्स
में
कंपनी
का
नाम
बनने
लगा.
1970-1980:
कैमल
आर्टिस्ट
कलर
(Camel
Artist’s
Colours)
उतारे
गए.
कलाकारों
ने
इन
रंगों
को
खूब
पसंद
किया.
कैमल
ब्रांड
का
नाम
कला
से
जुड़
गया.
1990:
मैकेनिकल
पेंसिल,
मार्कर
और
हाइलाइटर
लॉन्च
किए
गए.
2000
वाला
दशक:
कैमलिन
ने
अपनी
प्रोड्कट
बनाने
के
तरीकों
का
आधुनिकीकरण
किया
और
भारत
और
अंतरराष्ट्रीय
स्तर
पर
अपने
वितरण
नेटवर्क
का
विस्तार
किया.
उत्पादों
को
बेहतर
बनाने
के
लिए
रिसर्च
और
डेवलपमेंट
पर
जोर
दिया
गया.
2011:
जापानी
स्टेशनरी
कंपनी
कोकुयो
कंपनी
लिमिटेड
ने
कैमलिन
में
अधिकांश
हिस्सा
खरीद
लिया.
इस
तरह
कोकुयो
कैमलिन
लिमिटेड
का
गठन
हुआ.
इस
अधिग्रहण
से
नई
टेक्नोलॉजी,
विशेषज्ञता,
और
नई
प्रोडक्ट
रेंग
का
आगमन
हुआ,
जिसने
बाजार
में
कैमलिन
की
स्थिति
को
और
मजबूत
कर
दिया.
कोकुयो
एक
बहुत
बड़ी
जापानी
कंपनी
है.
2011-2020:
कोकुयो
कैमलिन
ब्रांड
के
तहत,
कंपनी
ने
एनोवेशन
पर
जोर
दिया
और
बिजनेस
का
विस्तार
किया.
इसने
विभिन्न
ग्राहकों
की
आवश्यकताओं
को
पूरा
करने
के
लिए
विभिन्न
स्टेशनरी,
ऑफिस
सप्लाई,
और
आर्ट
मैटिरियल
की
व्यापक
रेंज
प्रस्तुत
की.
कंपनी
अब
ईको-फ्रेंडली
उत्पाद
बनाने
पर
जोर
दे
रही
है.
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FIRST
PUBLISHED
:
July
16,
2024,
13:32
IST