Indore Lok Sabha: इंदौर सीट पर 35 साल से प्रयोग ही कर रही है कांग्रेस, बड़े नेताओं ने भी खींचे अपने पैर पीछे

Indore Lok Sabha: इंदौर सीट पर 35 साल से प्रयोग ही कर रही है कांग्रेस, बड़े नेताओं ने भी खींचे अपने पैर पीछे
Indore Lok Sabha: इंदौर सीट पर 35 साल से प्रयोग ही कर रही है कांग्रेस, बड़े नेताओं ने भी खींचे अपने पैर पीछे

इंदौर
लोकसभा
सीट
का
इतिहास


फोटो
:
अमर
उजाला

विस्तार

क्षत्रपों
की
पैंतरेबाजी,
स्थानीय
दिग्गजों
की
आपसी
लड़ाई
और
संगठन
पर
वर्चस्व
की
होड़
के
चलते
इंदौर
बीते
35
साल
में
कांग्रेस
के
लिए
राजनीतिक
प्रयोग
का
बड़ा
केंद्र
बन
गया
है।
1989
में
यहां
कांग्रेस
का
दबदबा
खत्म
होने
की
शुरुआत
हुई
और
अब
यहां
पार्टी
को
सबसे
बुरा
समय
देखना
पड़
रहा
है।



  
 
इस
बार
फिर
कांग्रेस
ने
यहां
नया
प्रयोग
किया
है।
बड़े
नेताओं
के
पैर
पीछे
खींचने
के
बाद
इस
बार
अक्षय
कांति
बम
को
वर्तमान
सांसद
शंकर
लालवानी
के
सामने
दांव
पर
लगाया
गया
है।
प्रयोग
का
यह
सिलसिला
कांग्रेस
ने
ललित
जैन
के
साथ
शुरू
किया
था।
फिर
यह
मधुकर
वर्मा,
पंकज
संघवी,
महेश
जोशी,
रामेश्वर
पटेल
से
होते
हुए
सत्यनारायण
पटेल
तक
पहुंचा
था।
हर
चुनाव
में
यहां
पार्टी
का
नजरिया
अलग
रहा।
कभी
भी
यह
कोशिश
नहीं
हुई
कि
पिछली
हार
से
सबक
लेकर
पार्टी
जीत
के
लिए
एकजुट
हो।


कांग्रेस
नेताओं
के
कारण
ही
जीते
थे
दाजी

1962
में
जब
कॉमरेड
होमी
दाजी
ने
इंदौर
में
कांग्रेस
का
रास्ता
रोका
था।
तब
भी
उसका
कारण
कांग्रेस
नेता
ही
थे।
तब
यहां
लड़ाई
कांग्रेस
बनाम
जनसंघ
नहीं,
बल्कि
इंटक
बनाम
कांग्रेस
हुई
थी।
रामसिंह
भाई
वर्मा
से
खौफ
खाने
वाले
उस
जमाने
के
तमाम
कांग्रेसी
दिग्गज
चुनाव
में
परदे
के
पीछे
दाजी
के
पैरोकार
बने
थे।
वर्मा
तब
मात्र
6,293
वोट
से
चुनाव
हारे
थे।


जनता
लहर
में
बाहरी
बनाम
स्थानीय

1977
में
जनता
पार्टी
की
लहर
थी।
प्रकाशचंद
सेठी
मुकाबले
में
थे
नहीं
और
तब
भी
यहां
इंटक
के
दबदबे
को
देखते
हुए
कांग्रेस
ने
सेठी
के
विकल्प
के
तौर
पर
इंटक
के
दिग्गज
नेता
शाजापुर
निवासी
नंदकिशोर
भट्ट
को
मैदान
में
उतारा
था।
तब
कल्याण
जैन
जनता
पार्टी
के
उम्मीदवार
थे।
लहर
के
साथ
ही
इस
चुनाव
ने
स्थानीय
बनाम
बाहरी
का
रूप
भी
लिया
और
नतीजा
जैन
के
पक्ष
में
रहा।
जैन
1972
में
सेठी
के
मुख्यमंत्री
बनने
के
कारण
हुए
उपचुनाव
में
रामसिंह
भाई
वर्मा
से
मात्र
15611
मतों
से
हारे
थे।


विकल्प
नहीं
ढूंढ
पाए
और
हार
गए

1984
में
जब
प्रकाशचंद
सेठी
राजेंद्र
धारकर
को
हराकर
चुनाव
जीते
थे
तब
यह
माना
गया
था
कि
यह
अब
उनका
अंतिम
चुनाव
होगा।
1989
में
जब
किसी
नए
चेहरे
को
मौका
देने
के
बजाय
पार्टी
ने
फिर
उन्हें
मैदान
में
उतारा
तो
जनता
के
बीच
उनकी
छवि
एक
थके
हुए
नेता
की
बनी।
मुकाबले
में
सुमित्रा
महाजन
के
आने
पर
कांग्रेस
को
यह
आस
बंधी
थी
कि
नए-नवेले
चेहरे
के
सामने
सेठी
जैसे
कद्दावर
नेता
फिर
चुनाव
जीत
जाएंगे।
जो
सेठी
दाजी
के
खिलाफ
चुनाव
लड़ते
हुए
घर-घर
जनसंपर्क
करने
पहुंचे
थे
वे
अब
चुनाव
प्रचार
के
दौरान
गाड़ी
पर
बैठे-बैठे
ही
सो
जाते
थे।
जनता
के
बीच
इस
बार
उनकी
स्वीकार्यता
नहीं
बन
पाई
और
चौंकाने
वाले
नतीजे
में
सुमित्रा
महाजन
ने
उन्हें
शिकस्त
दी।


ताकतवर
लॉबी
के
प्रत्याशी
थे
जैन

1991
में
ललित
जैन
कांग्रेस
के
उम्मीदवार
थे।
वे
तब
मालवा
की
राजनीति
में
ताकतवर
एक
घराने
के
उम्मीदवार
माने
गए
थे।
इनका
पूरा
चुनाव
कांग्रेस
की
बजाय
इसी
घराने
ने
लड़ा
और
जैन
जनता
तो
दूर
पार्टी
कार्यकर्ताओं
के
बीच
स्वीकार्यता
नहीं
बना
पाए।
इस
चुनाव
में
कांग्रेस
के
एक
बड़े
वर्ग
ने
जैन
को
निपटाने
में
कोई
कसर
बाकी
नहीं
रखी।


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वर्मा
को
मैदान
में
लाकर
वॉकओवर
ही
दे
दिया

यहां
के
क्षत्रपों
की
लड़ाई
में
1996
में
नया
प्रयोग
हुआ।
तब
महेश
जोशी
ने
तत्कालीन
महापौर
मधुकर
वर्मा
को
उम्मीदवार
बनवा
दिया।
तिवारी
कांग्रेस
से
अनिल
शाखी
भी
मैदान
में
थे।
चूंकि,
वर्मा
जोशी
के
उमीदवार
थे,
इसलिए
कांग्रेसी
पीछे
हट
गए।
पार्टी
के
लोगों
ने
इस
चुनाव
को
गंभीरता
से
लिया
ही
नहीं।


संघवी
ने
किला
लड़ाया
पर
दूसरी
बार
बुरी
तरह
हारे

1998
में
पंकज
संघवी
तत्कालीन
मुख्यमंत्री
दिग्विजयसिंह
की
इच्छा

होने
के
बाद
भी
टिकट
ले
आए
थे।
दिग्विजय
तब
सत्यनारायण
पटेल
को
टिकट
दिलवाना
चाहते
थे।
संघवी
के
लिए
पार्टी
के
ज्यादातर
लोग
भी
लगे
और
निजी
टीम
भी।
उन्होंने
चुनाव
रणनीति
और
दमदारी
से
लड़ा
और
महाजन
के
लिए
खासी
परेशानी
खड़ी
कर
दी।
इसके
बाद
भी
जीत
नहीं
सके।
संघवी
को
2019
में
एक
बार
फिर
मौका
मिला
लेकिन
तब
रिकॉर्ड
अंतर
से
चुनाव
हारे।
इंदौर
के
इतिहास
में
लोकसभा
चुनाव
में
यह
सबसे
करारी
शिकस्त
थी। 


जोशी
को
सबने
मिलकर
निपटाया

1980
में
महेश
जोशी
लोकसभा
का
टिकट
लाते-लाते
रह
गए
थे।
इसके
बाद
उन्हें
1999
में
मौका
मिला।
तब
भी
दिग्विजय
सिंह
मुख्यमंत्री
थे
और
दिग्विजय
ने
इंदौर
के
मामले
में
जोशी
को
फ्री-हैंड
दे
रखा
था।
तब
भाजपा
में
ताई
को
लेकर
भी
भारी
अंतर्कलह
था।
कांग्रेस
फायदा
उठाने
की
स्थिति
में
थी
पर
जोशी
के
बढ़ते
कद
पर
अंकुश
लगाने
का
इससे
अच्छा
मौका
कांग्रेसियों
को
फिर
मिलने
वाला
नहीं
था।
सबने
मिलकर
उन्हें
निपटा
दिया।


पटेल
औपचारिकता
पूरी
करने
के
लिए
लड़े

महेश
जोशी
जैसे
कद्दावर
नेता
की
हार
के
बाद
कांग्रेस
के
पास
कोई
विकल्प
नहीं
था।
कांग्रेस
प्रदेश
में
भी
चुनाव
हार
चुकी
थी।
ऐसे
में
रामेश्वर
पटेल
को
उम्मीदवार
बनाया
गया।
उन्हें
भी
1993
की
विधानसभा
चुनाव
की
हार
के
बाद
पुनर्वास
का
इंतजार
था।
वे
चुनाव
लड़े
पर
बेमन
से।
पार्टी
भी
छिन्न-भिन्न
थी।
2003
की
विधानसभा
चुनाव
की
हार
के
सदमे
से
उबर
नहीं
पाई
थी।
नतीजा
रहा
कि
पटेल
1,93,936
मतों
से
हारे।


बेटा
कुछ
तो
हिसाब
बराबर
कर
पाया

2009
में
सत्यनारायण
पटेल
को
कांग्रेस
मैदान
में
लेकर
आई।
वे
2003
का
विधानसभा
चुनाव
हारे
ही
थे।
यह
चुनाव
भाजपा
बनाम
कांग्रेस
नहीं,
बल्कि
सुमित्रा
महाजन
बनाम
कैलाश
विजयवर्गीय
था।
पटेल
को
कांग्रेस
से
ज्यादा
मदद
भाजपा
से
मिली
और
वे
जीत
के
नजदीक
आते-आते
रह
गए।
भाजपा
का
दम
था
इसलिए
कांग्रेस
ने
भी
पटेल
के
लिए
पूरी
ताकत
झोंकी
पर
बात
नहीं
बनी।
2014
में
सत्यनारायण
पटेल
एक
बार
फिर
मैदान
में
थे
लेकिन
इस
बार
उन्हें
सुमित्रा
महाजन
के
हाथों
करारी
शिकस्त
मिली।