
साबित्री
बाई
फुले
व
भाजपा
सांसद
बृजभूषण
शरण
सिंह।
–
फोटो
:
amar
ujala
विस्तार
राजनीति
में
कब
कौन
अर्श
से
फर्श
पर
आ
जाए
और
कब
बुलंदियों
को
छूने
लगे,
कुछ
कहा
नहीं
जा
सकता।
देवीपाटन
मंडल
की
संसदीय
सीटों
पर
ही
नजर
दौड़ाएं
तो
कई
उदाहरण
ऐसे
हैं
जिनकी
सियासत
में
कभी
तूती
बोलती
रही
हैं
वो
अब
गायब
हैं
या
फिर
अपना
अस्तित्व
बचाए
रखने
के
लिए
सारी
जुगत
लगा
रहे
हैं।
इस
समय
कैसरगंज
संसदीय
सीट
की
खासी
चर्चा
हैं।
असल
में
जिस
तरह
भाजपा
की
दसवीं
सूची
से
भी
कैसरगंज
का
नाम
लापता
है,
उससे
एक
बड़ा
संदेश
भी
सामने
आ
रहा
है।
कैसरगंज
एक
ऐसी
सीट
है
जो
पूरे
मंडल
ही
नहीं,
सूबे
की
चर्चित
सीटों
में
शामिल
हो
गई
है।
हालात
कुछ
भी
हों,
लेकिन
कद्दावर
के
टिकट
में
देरी
समझ
से
परे
मानी
जा
रही
है।
ऐसे
में
मंडल
की
कई
सीटें
और
दावेदार
हैं
जो
सियासत
की
ऊंचाइयों
तक
तो
पहुंचे,
लेकिन
अब
वह
सियासी
मैदान
से
दूर
हैं।
श्रावस्ती
संसदीय
सीट
से
वर्तमान
और
दो
पूर्व
सांसद
की
दशा
किसी
से
छिपी
नहीं
हैं।
बहराइच
के
भी
एक
पूर्व
सांसद
राजनीति
में
हाशिये
पर
हैं।
गोंडा
में
एक
पूर्व
सांसद
तो
राजनीति
के
मैदान
को
छोड़
चुके
हैं।
वहीं,
साल
2009
में
संसदीय
चुनाव
में
दम
दिखाने
वाले
ने
पाला
तो
बदला,
लेकिन
गठबंधन
के
खेल
में
पेंच
फंस
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बसपा
भी
प्रत्याशी
को
लेकर
खामोश
कैसरगंज
में
बेनी
की
सपा
मुखिया
से
हुई
थी
रार
कैसरगंज
सीट
पहले
भी
चर्चाओं
में
रही
है।
सपा
के
कद्दावर
नेता
बेनी
प्रसाद
वर्मा
1996
से
2004
तक
लगातार
चार
बार
सांसद
चुने
गए।
केंद्रीय
दूरसंचार
मंत्री
तक
बने।
सपा
मुखिया
मुलायम
सिंह
यादव
के
सबसे
करीबी
होने
के
बाद
भी
उनसे
ठन
गई
थी।
इस
कारण
2009
से
पहले
ही
बेनी
प्रसाद
वर्मा
को
पार्टी
छोड़कर
कांग्रेस
का
दामन
थामना
पड़ा।
2009
में
कांग्रेस
से
गोंडा
के
सांसद
चुने
गए
और
केंद्रीय
मंत्री
बने,
लेकिन
2014
में
जनता
ने
उन्हें
भी
नकार
दिया।
बहराइच
में
विवादों
से चर्चा
में
आईं
थीं
सावित्री
भाजपा
से
साल
2014
में
सांसद
बनीं
साबित्री
बाई
फुले
भी
ज्यादा
दिन
पार्टी
में
टिक
नहीं
सकीं।
बयानों
के
कारण
अक्सर
भाजपा
हाई
कमान
के
निशाने
पर
रहीं।
2019
में
उन्हें
आभास
हो
गया
कि
पार्टी
से
टिकट
नहीं
मिलेगा।
ऐन
वक्त
पर
उन्होंने
कांग्रेस
का
दामन
तो
थामा
लेकिन
सियासत
में
सफल
नहीं
हो
सकीं।
अब
वह
कांग्रेस
में
तो
हैं
लेकिन
सियासी
मैदान
से
करीब-करीब
बाहर
हो
चुकी
हैं।
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सबसे
चर्चित
रही
गोंडा
संसदीय
सीट
देवीपाटन
मंडल
में
गोंडा
संसदीय
सीट
सबसे
चर्चित
रही
है।
साल
1971
में
चाचा-भतीजे
के
बीच
सियासी
मुकाबले
से
आनंद
सिंह
चर्चा
में
आए।
1996
में
भाजपा
सांसद
बृजभूषण
शरण
सिंह
के
केस
की
खासी
चर्चा
हुई।
उनकी
पत्नी
केतकी
सिंह
ने
मोर्चा
संभाला
और
जीत
कर
सदन
पहुंचीं।
1998
के
चुनाव
में
फिर
भाजपा
से
बृजभूषण
शरण
सिंह
मैदान
में
आए
अति
आत्मविश्वास
के
भाषणों
से
चर्चित
हुए
और
चुनाव
हार
गए।
1999
में
वह
फिर
लड़े
और
जीते,
लेकिन
2004
में
पार्टी
हाईकमान
ने
उनका
टिकट
बदलकर
बलरामपुर
भेज
दिया।
श्रावस्ती
की सियासत
से
बाहर
हुए कई
पूर्व
सांसद
श्रावस्ती
संसदीय
सीट
से
कद्दावर
नेताओं
को
पार्टियों
के
हाईकमान
ने
निशाने
पर
लिया।
पूर्व
सांसद
रिजवान
जहीर
साल
2004
में
सपा
हाईकमान
के
निशाने
पर
आए।
इसके
बाद
मुख्यधारा
में
वापस
नहीं
आ
सके।
2004
में
सपा
मुखिया
मुलायम
सिंह
यादव
ने
उनके
सामने
मोहम्मद
उमर
को
उतार
कर
झटका
दिया।
2009
में
बसपा
से
मैदान
में
आए
और
चुनाव
नहीं
जीत
सके।
कारण
बहराइच
की
रूवाब
सईदा
को
सपा
ने
प्रत्याशी
बना
दिया
था।
इस
साल
कांग्रेस
से
विनय
पांडेय
जीते,
लेकिन
उनकी
क्षेत्र
में
उपलब्धता
कम
होने
से
2014
में
हार
मिली।
इसके
बाद
यह
भी
हाशिये
पर
आ
गए
और
अब
सपा
में
तो
हैं
लेकिन
कोई
चर्चा
नहीं
है।
2019
में
बसपा
से
राम
शिरोमणि
वर्मा
भी
पार्टी
के
निशाने
पर
आए।
2014
में
सांसद
बने
दद्दन
मिश्र
भी
इस
बार
पार्टी
के
विश्वास
पर
खरे
नहीं
उतर
सके।