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CPI
M
Charu
Majumdar
12
घंटे
पहलेलेखक:
सृष्टि
तिवारी
-
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लिंक

24
मई
1967।
पश्चिम
बंगाल
का
नक्सलबाड़ी
गांव।
एक
किसान
धूप
में
जमींदार
नगेन
चौधरी
के
खेतों
में
फसल
काट
रहा
था।
जमींदार
मुआयना
करने
पहुंचा
तो
किसान
ने
उससे
कहा-
‘हुजूर,
कुछ
मजदूरी
बढ़ा
दीजिए।
पहले
भी
कई
बार
तकलीफ
बता
चुका
हूं।’
जमींदार
ने
पहले
तो
तवज्जो
नहीं
दी,
लेकिन
किसान
अपनी
बात
दोहराता
रहा।
तभी
जमींदार
ने
अपनी
बंदूक
निकाली
और
उस
पर
गोली
दाग
दी।
किसान
की
मौके
पर
ही
मौत
हो
गई।
ये
खबर
मिलते
ही
आस-पास
के
खेतों
के
किसान
इकट्ठा
हो
गए
और
जमींदार
नगेन
चौधरी
को
दबोच
लिया।
फौरन
एक
सभा
बुलाई
गई
और
जमींदार
को
खींचकर
उसमें
ले
जाया
गया।
इस
सभा
के
नेता
थे
कानू
सान्याल।
ये
वही
कानू
सान्याल
थे
जिन्हें
पहला
नक्सली
माना
जाता
है।
खुली
सुनवाई
में
कानू
ने
कहा,
‘सबसे
पहले
हम
तुम्हें
तुम्हारा
जुर्म
कुबूल
करने
का
मौका
देते
हैं।’
नगेन
ने
अपनी
गलती
मानने
से
इनकार
कर
दिया
और
उल्टे
किसानों
को
ही
गालियां
देने
लगा।
तभी
किसानों
के
बीच
से
6
फीट
5
इंच
का
एक
आदिवासी
शख्स
‘जंगल
संथाल’
खड़ा
हुआ
और
एक
झटके
में
नगेन
चौधरी
का
सिर
कलम
कर
दिया।
इसी
घटना
को
नक्सलवाद
की
पहली
चिनगारी
माना
जाता
है।
नक्सलबाड़ी
गांव
से
शुरू
होने
के
चलते
ही
इसे
नक्सलवाद
नाम
मिला।
किसानों
और
मजदूरों
का
ये
विरोध
जल्द
ही
शहरों
के
कॉलेज-यूनिवर्सिटी
के
छात्रों
ने
अपने
हाथों
में
ले
लिया।
हालांकि
कुछ
महीने
बाद
ही
ये
हिंसक
नक्सली
आंदोलन
में
बदल
गया
जो
4
दशक
से
देश
की
आंतरिक
सुरक्षा
पर
खतरा
बना
हुआ
है।
आज
रकस
के
तीसरे
एपिसोड
में
पश्चिम
बंगाल
से
शुरू
हुए
इसी
आंदोलन
की
कहानी…

1949
में
छात्र
रहते
हुए
कानू
सान्याल
ने
CPI
को
बैन
करने
के
विरोध
में
बंगाल
के
मुख्यमंत्री
बिधान
चन्द्र
रॉय
को
काले
झंडे
दिखाए
थे।
नक्सलबाड़ी
में
जमींदार
की
ये
हत्या
बड़ी
घटना
थी।
अगले
ही
दिन,
यानी
25
मई
को
पुलिस
हरकत
में
आ
गई।
गांव
में
छापामारी
शुरू
हो
गई।
ऐसे
ही
एक
छापे
के
दौरान
पुलिस
इंस्पेक्टर
सोनम
वांगडी
ने
जैसे
ही
एक
घर
के
दरवाजे
पर
दस्तक
दी,
अंदर
से
एक
महिला
ने
जहर
बुझा
तीर
चला
दिया।
सोनम
वांगडी
की
वहीं
मौत
हो
गई।
इसके
बाद
नक्सलबाड़ी
को
छावनी
में
बदल
दिया
गया।
ग्रामीणों
और
पुलिस
के
बीच
घमासान
छिड़
गया।
गांव
वालों
ने
पुलिस
को
गांव
में
आने
से
रोक
दिया।
25
मई
को
पुलिस
को
सूचना
मिली
कि
गांव
वाले
एक
सभा
करने
वाले
हैं।
पुलिस
नक्सलबाड़ी
बाजार
से
एक
किलोमीटर
दूर
निगरानी
के
लिए
पहुंच
गई।
लगभग
200
महिलाओं
और
कुछ
पुरुष
आंदोलनकारियों
ने
एक
स्कूल
के
पास
कैंप
लगाया
हुआ
था।
यहां
किसान
जमींदारों
का
विरोध
कर
रहे
थे।
पुलिस
वहां
सादे
कपड़ों
में
जीप
में
पहुंची
मगर
गांव
वालों
ने
उन्हें
घेर
लिया।
पुलिस
बोली,
‘हम
कुछ
नहीं
करेंगे,
हमें
जाने
दो।’
इस
पर
किसान
पीछे
हट
गए।
मगर
25
मीटर
दूर
जाते
ही
पुलिस
ने
पलटकर
अंधाधुंध
गोलियां
चला
दीं।
इस
फायरिंग
में
11
गांव
वालों
की
मौके
पर
ही
मौत
हो
गई।
इसमें
8
महिलाएं,
1
पुरुष
और
2
बच्चे
शामिल
थे।
इस
घटना
ने
पूरे
पश्चिम
बंगाल
में
आग
भड़का
दी।
24
परगना
जिले
में
किसान
और
मजदूर
जमींदारों
के
खिलाफ
खड़े
हो
गए।

किसान
की
हत्या
के
बाद
नक्सलबाड़ी
के
किसानों
ने
पुलिस
का
गांव
में
आना
वर्जित
कर
दिया
था।
यूनिवर्सिटी
के
छात्रों
ने
लूटीं
जमींदारों
की
फसलें
सितंबर
1968
में
सबसे
पहले
सिलीगुड़ी
की
नॉर्थ
बंगाल
यूनिवर्सिटी
के
छात्रों
ने
ग्रामीणों
की
हत्या
के
खिलाफ
विरोध
प्रदर्शन
किया।
यही
नहीं,
छात्रों
ने
किसानों
के
साथ
मिलकर
माटीगारा
के
जमींदार
नरसिंह
गिरी
के
गोदाम
से
सारी
फसल
लूट
ली।
छात्रों
ने
साथ
मिलकर
कृषक
संग्राम
सहायक
समिति
बनाई।
इस
समिति
को
कानू
सान्याल
लीड
कर
रहे
थे।
कानू
ने
1950
में
कम्युनिस्ट
पार्टी
ऑफ
इंडिया,
यानी
CPI
जॉइन
की
थी।
1949
में
कानू
सान्याल
ने
CPI
को
बैन
करने
के
विरोध
में
बंगाल
के
मुख्यमंत्री
बिधान
चन्द्र
रॉय
को
काले
झंडे
दिखाए
थे।इसी
के
चलते
उन्हें
गिरफ्तार
किया
गया
था।
जेल
में
ही
कानू
सान्याल
की
पहली
मुलाकात
चारू
मजूमदार
से
हुई
थी।
माओवादी
विचारधारा
से
प्रेरित
चारू
मजूमदार
को
ही
नक्सलवाद
का
जनक
माना
जाता
है।
चारू
मजूमदार
ने
छात्रों
की
इस
समिति
को
एक
नारा
दिया
–
‘बौग्रेओउस
शिक्षा
बाबयस्था
निपट
जक’,
यानी
‘पूंजीवादी
शिक्षा
व्यवस्था
मुर्दाबाद।’
चारू
ने
छात्रों
को
परंपरागत
शिक्षा
का
विरोध
करने
और
हथियार
बंद
आंदोलन
की
राह
पकड़ने
की
सीख
दी।
इसके
बाद
शहरों
में
भी
छात्र
आंदोलनों
में
शामिल
हुए
और
इस
छात्र
समिति
से
जुड़ने
लगे।
देशभर
के
राज्यों
में
होने
लगे
प्रदर्शन
1968
के
आखिर
तक
पुलिस
और
नक्सलबाड़ी
ग्रामीणों
के
बीच
झड़प
बढ़
चुकी
थीं।
कानू
सान्याल,
जंगल
संथाल,
खोखेन
मजूमदार
और
उनके
साथी
भूमिगत
होकर
आंदोलन
को
चला
रहे
थे।
अपनी
किताब
‘पहला
नक्सली’
में
बप्पादित्य
पॉल
लिखते
हैं,
‘कानू
के
पास
सिर्फ
29
बंदूकें
थीं।
चारू
भूमिगत
थे
और
नक्सलबाड़
का
भरपूर
दुष्प्रचार
हो
रहा
था।
रोज
ही
अखबारों
में
ग्रामीणों
के
खिलाफ
छापा
जा
रहा
था।
इसका
उल्टा
असर
ये
था
कि
असम,
बिहार,
उत्तर
प्रदेश,
केरल,
आंध्रप्रदेश,
तमिलनाडु,
और
जम्मू-कश्मीर
जैसे
दूसरे
राज्यों
के
कॉमरेड
और
छात्र
भी
अभियान
में
शामिल
होने
लगे।’

राज्य
में
राष्ट्रपति
शासन
लगाना
पड़ा
1968
की
शुरुआत
में
नक्सलबाड़ी
और
आसपास
के
इलाकों
में
नक्सली
लगातार
व्यापारियों
और
मध्यम
वर्गीय
किसानों
की
हत्याएं
कर
रहे
थे।
गांव
के
अलावा,
शहरी
इलाकों
में
भी
अराजकता
फैल
गई
थी,
जिसे
रोकने
में
मुख्यमंत्री
प्रफुल्ल
चंद्र
घोष
असफल
रहे
थे।
आखिरकार
20
फरवरी
1968
को
सरकार
को
बर्खास्त
कर
राष्ट्रपति
शासन
लगा
दिया
गया।
दार्जिलिंग
के
तत्कालीन
डिस्ट्रिक्ट
पुलिस
इंस्पेक्टर
अरुण
प्रसाद
मुखोपाध्याय
ने
ताबड़तोड़
छापे
मारे
और
कई
नक्सली
नेताओं
को
गिरफ्तार
कर
लिया।

नक्सली
नेताओं
को
गिरफ्तार
किया
जा
रहा
था।
नक्सलबाड़ी
गांव
में
एक
नक्सल
नेता
की
गिरफ्तारी
की
तस्वीर।
चीन
के
राष्ट्रपति
को
अपना
राष्ट्रपति
कहने
लगे
नक्सली
इस
आंदोलन
की
सूचना
चीन
तक
पहुंच
चुकी
थी।
माओवादी
विचारधारा
के
समर्थक
चारू
मजूमदार
ने
1968
में
एक
और
नारा
गढ़ा।
ये
था
‘चाइनेर
चेयरमैन
आमादेर
चेयरमैन’
यानी
चीन
के
प्रेसिडेंट
हमारे
भी
प्रेसिडेंट
हैं।
सितंबर
1968
में
चारू
के
कुछ
साथी
खोखेन
मजूमदार,
खुदन
मलिक
और
दीपक
विस्वास
चीनी
राजनीतिज्ञ
माओ
से
मिलने
और
ट्रेनिंग
लेने
चीन
गए
थे।
वहां
उनका
बहुत
स्वागत
हुआ।
द
वीक
को
दिए
एक
इंटरव्यू
में
नक्सली
खुदन
मलिक
ने
बताया-
‘हमें
कहा
गया
कि
तुम
चाईनीज
की
तरह
दिखते
हो,
तुम्हें
चीनी
सेना
में
होना
चाहिए।’
माओ
ने
इन
नेताओं
से
कहा,
‘CPI
पार्टी
भर
से
इंडिया
में
क्रांति
नहीं
आएगी।
नक्सलाइट्स
ही
ये
क्रांति
ला
सकते
हैं।
मगर
आर्म्ड
रिवोल्यूशन
से
पहले
जनता
का
सपोर्ट
पाना
जरूरी
होगा।’

चारू
ने
कहा,
‘चाइनेर
चेयरमैन
आमादेर
चेयरमैन’,
यानी
चीन
के
प्रेसिडेंट
हमारे
भी
प्रेसिडेंट
हैं।
छात्रों
ने
किए
बम
धमाके,
हत्याएं
1968
के
आखिर
में
चीन
से
लौटने
के
बाद
नक्सली
नेता
और
हिंसक
हो
गए।
पूरे
तराई
इलाके
में
पुलिस
और
जमींदार
जाने
से
डरने
लगे
थे।
इसी
बीच
30
अक्टूबर
1968
को
कानू
सान्याल
को
पुलिस
ने
नक्सलबाड़ी
के
बीरसिंह
जोते
गांव
से
गिरफ्तार
कर
लिया।
पॉल
अपनी
किताब
‘पहला
नक्सली’
में
लिखते
हैं,
‘कानू
की
गिरफ्तारी
के
बाद
नक्सलबाड़ी
आंदोलनकारी
सरकारी
अधिकारियों
को
अपना
निशाना
बनाने
लगे।
इसमें
छात्र
सबसे
आगे
थे।
हथगोले
फेंकना,
जगह-जगह
बम
विस्फोट
करना
अब
छात्रों
के
लिए
आम
हो
गया
था।
जुलाई
1969
में
पश्चिम
बंगाल
के
साउथ
ब्लॉक
में
इन
छात्रों
ने
सुभाष
चंद्र
बोस
द्वारा
स्थापित
राजनीतिक
दल
‘फॉरवर्ड
ब्लॉक’
के
नेता
हेमंत
बोस
को
जनता
के
सामने
मार
डाला।’
इस
हिंसा
को
कंट्रोल
नहीं
कर
पाने
पर
नक्सलबाड़ी
में
CRPF
लगा
दी
गई।
आरोपियों
को
देखते
ही
गोली
मारने
के
आदेश
दिए
गए।
मई
1969
में
संयुक्त
मोर्चा
सरकार
ने
दार्जिलिंग
और
सिलीगुड़ी
की
जेलों
में
बंद
सभी
नक्सलबाड़ी
क्रांतिकारियों
को
आम-माफी
देकर
उन्हें
रिहा
कर
दिया
था।
मगर
चारू
ने
जेल
से
बाहर
आकर
‘वॉर
ऑफ
एनहिलेशन’
यानी
जमींदारों
के
कम्प्लीट
सफाए
का
नारा
दिया।
नक्सली
जमींदारों
और
पुलिस
को
मारने
के
लिए
एक्टिव
हो
गए।

स्टूडेंट्स
कॉलेज
और
यूनिवर्सिटीज
में
बम
धमाके
कर
पढ़ाई
का
विरोध
करने
लगे
थे।
शिक्षा
को
क्रांति
में
रुकावट
मानने
लगे
छात्र
1969
से
1970
के
बीच
के
समय
में
नक्सलियों
ने
शिक्षण
संस्थानों
को
जमकर
निशाना
बनाया।
पॉल
अपनी
किताब
‘पहला
नक्सली’
में
लिखते
हैं,
‘चारू
मजूमदार
ने
छात्रों
को
स्कूल-कॉलेजों
का
बहिष्कार
करने
का
नारा
दिया
था।
अब
छात्रों
को
भी
लगने
लगा
था
कि
परंपरागत
शिक्षा
का
कोई
फायदा
नहीं
है,
बल्कि
ये
क्रांति
के
रास्ते
में
रुकावट
है।’
पॉल
के
अनुसार,
‘आंदोलनकारी
छात्र
स्कूल-कॉलेजों
पर
बम
गिरा
रहे
थे।
हर
जगह
तोड़फोड़
कर
रहे
थे।
इसके
साथ
ही
वो
दूसरे
छात्रों
को
स्कूल-कॉलेज
का
पूरी
तरह
बहिष्कार
करने
को
प्रेरित
कर
रहे
थे।
पूरे
पश्चिम
बंगाल
में
छात्रों
ने
स्कूल-कॉलेजों
में
आग
लगानी
शुरू
कर
दी।
किताबें
जला
दीं
और
कई
यूनिवर्सिटी
की
परीक्षाओं
में
भी
रुकावट
डाली।’
नक्सलियों
को
लीड
करने
लगे
छात्र
1970
में
अखबारों
में
रोज
ही
नक्सलबाड़
की
खबरें
छप
रहीं
थीं।
वहीं
चारू
ने
अपने
संपर्कों
के
माध्यम
से
दुष्प्रचार
भी
किया
था
कि
ये
आंदोलन
शिक्षा
में
पूंजीवादी
व्यवस्था
के
खिलाफ
है।
ऐसे
में
नक्सली
आंदोलन
पूरी
तरह
छात्रों
का
आंदोलन
बन
चुका
था।
पॉल
की
किताब
‘पहला
नक्सली’
के
अनुसार,
‘अब
ये
आंदोलन
खेत
मजदूर
और
गरीब
किसानों
के
बीच
का
नहीं
रह
गया
था,
बल्कि
इसमें
सैकड़ों
छात्र
जुड़
गए
थे।
ये
छात्र
देश
की
नामी
यूनिवर्सिटी
और
कॉलेजों
के
थे।
इन
छात्रों
ने
चारू
को
कभी
देखा
तक
नहीं
था,
लेकिन
वे
फिर
भी
इस
आंदोलन
से
जुड़ाव
महसूस
कर
रहे
थे।’
इस
आंदोलन
में
स्टूडेंट्स
अपनी-अपनी
लोक
भाषाओं
जैसे
मैथिली,
मगही
और
भोजपुरी
में
गीत
लिखकर
गांव-गांव
जाकर
लोगों
को
बता
रहे
थे
कि
नक्सलबाड़ी
आंदोलन
क्यों
चल
रहा
है।
पुलिस
मुठभेड़
में
2
हजार
से
ज्यादा
लोगों
की
जान
गई
नक्सलबाड़ी
में
हिंसा
के
समय
पुलिस
बल
के
अधिकारी
रहे
अशोक
मुखोपाध्याय
अपनी
किताब
‘चारू
मजूमदार:
द
ड्रीमर
रिबेल’
में
लिखते
हैं,
‘बंगाल
में
1967
से
1972
के
बीच
पुलिस
मुठभेड़
में
ऐसे
2
हजार
लोग
मारे
गए
थे,
जिन
पर
नक्सली
होने
का
आरोप
था।
वहीं,
पूरे
भारत
में
मरने
वालों
का
ये
आंकड़ा
लगभग
5
हजार
था।
मारे
गए
लोगों
में
से
कई
सारे
स्टूडेंट्स
थे
और
उनमें
IIT
खडगपुर,
कोलकाता
के
प्रेसिडेंसी
और
स्कॉटिश
चर्च
कॉलेज
और
जादवपुर
विश्वविद्यालय
के
छात्र
भी
शामिल
थे।’

जब
पुलिस
का
रुख
सख्त
हुआ
तो
नक्सलबाड़ी
नेता
सरकारी
अधिकारियों
को
अपना
निशाना
बनाने
लगे।
राज्य
में
3
बार
राष्ट्रपति
शासन
लगा
मई
1969
में
आंदोलनकारी
जमींदारों
और
पुलिस
को
मारने
के
लिए
एक्टिव
हो
गए।
इसके
बाद
अजॉय
मुखर्जी
के
नेतृत्व
वाली
संयुक्त
मोर्चा
सरकार
19
मार्च
1970
को
बर्खास्त
कर
दी
गई
और
बंगाल
में
दो
सालों
में
दूसरी
बार
राष्ट्रपति
शासन
लगा।
अगस्त
1970
में
पश्चिम
दिजनापुर
और
दार्जिलिंग
में
नक्सलियों
ने
पुलिस
कैंप
पर
हमला
कर
राइफलें
लूट
लीं।
इसके
कुछ
समय
बाद
ही
पुलिस
ने
फिर
से
कानू
सान्याल
और
उनके
साथियों
को
नक्सलबाड़ी
से
गिरफ्तार
कर
लिया।
2
अप्रैल
1971
को
पश्चिम
बंगाल
से
राष्ट्रपति
शासन
हटा
लिया
गया।
कांग्रेस
के
गठबंधन
में
बनी
सरकार
में
प्रफुल्ल
चंद्र
घोष
नए
मुख्यमंत्री
बनाए
गए।
हालांकि
नई
सरकार
भी
ढाई
महीने
ही
चल
पाई।
लगातार
बढ़ती
हिंसा
के
चलते
28
जून
1971
को
तीसरी
बार
राज्य
में
राष्ट्रपति
शासन
लगा
दिया
गया।

छात्रों
को
काबू
करने
में
पुलिस
सिपाही
भी
घायल
हो
जाते
थे।
नक्सलबाड़
के
तीनों
बड़े
नेता
अकाल
मौत
मरे
23
मार्च
2010,
दोपहर
के
3
बजे।
सिलीगुड़ी
शहर
के
सेबदेला
जोते
गांव
में
अचानक
हलचल
मच
गई।
कई
पत्रकार,
पुलिस
की
एक
बड़ी
टुकड़ी
और
सैकड़ों
ग्रामीण
एक
मिट्टी
की
झोपड़ी
के
बाहर
खड़े
थे।
झोपड़ी
की
मिट्टी
की
दीवारों
पर
लेनिन,
स्टालिन
और
कुछ
अन्य
साम्यवादी
नेताओं
की
तस्वीरें
लगी
थीं
और
कानू
सन्याल
का
शव
फांसी
पर
झूल
रहा
था।
1972
में
चारू
मजूमदार
मोस्ट
वांटेड
थे।
उन्हें
16
जुलाई
को
गिरफ्तार
किया
गया
और
28
जुलाई
को
लाल
बाजार
पुलिस
थाने
में
उनकी
मौत
हो
गई।
मरने
के
बाद
उनकी
बॉडी
भी
परिवार
को
नहीं
दी
गई
थी।
1977
में
जंगल
संथाल
जेल
से
रिहा
हुए।
तब
तक
चारू
की
मौत
हो
चुकी
थी
और
कानू
पार्टी
छोड़
चुके
थे।
संथाल
अकेलेपन
में
शराबी
हो
गए
और
1981
में
गरीबी
से
मरे।
नक्सलवाद
के
शुरुआती
नेता
आज
जिन्दा
नहीं
हैं,
मगर
दशकों
बाद
आज
भी
नक्सलबाड़ी
में
एक
आर्मी
यूनिट
और
एक
एयरफोर्स
बेस
है,
जबकि
CRPF
हमेशा
यहां
मौजूद
रहती
है।
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