राहुल के हाथ में थी जो ‘लाल किताब’, उस पर संग्राम, नेहरू से इंदिरा तक घेरे में

राहुल के हाथ में थी जो ‘लाल किताब’, उस पर संग्राम, नेहरू से इंदिरा तक घेरे में


नई
दिल्ली.

लोकसभा
चुनाव
अभियान
के
दौरान
और
चुनाव
परिणामों
के
बाद,
कांग्रेस
नेता
राहुल
गांधी
ने
बगैर
सबूत
बार-बार
दावा
किया
कि
प्रधानमंत्री
नरेंद्र
मोदी
के
नेतृत्व
वाली
एनडीए
सरकार
संविधान
को
खतरे
में
डाल
रही
है
और
समाज
के
हाशिए
पर
पड़े
वर्गों
का
आरक्षण
खत्म
करने
की
योजना
बना
रही
है.
राहुल
गांधी
लाल
चमड़े
की
पॉकेट
साइज
संविधान
की
पुस्तक
को
अक्सर
प्रदर्शित
करते
रहे
हैं.
वह
खुद
को
दलितों,
अनुसूचित
जाति,
जनजातियों
(एसटी)
और
ओबीसी
समुदायों
के
रक्षक
के
रूप
में
पेश
करते
हुए,
उनको
प्राप्त
आरक्षण
के
संरक्षण
की
वकालत
करते
हैं.

लेकिन,
कांग्रेस
सांसद
और
लोकसभा
में
विपक्ष
के
नेता
राहुल
गांधी
इस
किताब
की
प्रस्तावना
की
सामग्री
से
अनजान
प्रतीत
होते
हैं.
विडंबना
यह
है
कि
पाॅकेट
साइज
की
संविधान
की
इस
पुस्तक
के
लेखक
सुप्रीम
कोर्ट
के
वकील
गोपाल
शंकरनारायणन
ने
पंडित
जवाहरलाल
नेहरू
की
नीतियों
को
देश

समाज
के
अनुकूल
नहीं
पाया
है.
इसी
का
हवाला
देते
हुए
केंद्रीय
मंत्री
हरदीप
सिंह
पुरी
ने
भी
‘एक्स’
पर
पोस्ट
किया
और
लिखा,
“किताब
उठाने
वालों
को
उसके
अंदर
क्या
लिखा
है,
यह
भी
जान
लेना
चाहिए.”

महत्वपूर्ण
बात
यह
है
कि
वकील
गोपाल
शंकरनारायणन
संविधान
के
महत्व
पर
जोर
देने
के
लिए
इंदिरा
गांधी
द्वारा
लगाए
गए
आपातकाल
का
उल्लेख
करते
हैं.
शंकरनारायणन
ने
पुस्तक
की
प्रस्तावना
में
अपने
विचार
व्यक्त
किए
हैं.
प्रस्तावना
में,
वे
कहते
हैं,
“हमारे
संविधान
को
उस
समय
के
सर्वाधिक
प्रतिभाशाली
लोगों
द्वारा
तैयार
किया
गया
था,
और
शुक्र
है
कि
वे
भ्रमित
नेहरूवादी
सामाजिक
नीति
द्वारा
निर्देशित
नहीं
थे,
जिसने
बाद
के
वर्षों
लगातार
सरकारों
को
निर्देशित
किया.”

उसमें
लिखा
है,
“यदि
संविधान
सशक्त
नहीं
होता,
तो
इंदिरा
गांधी
को
आपातकाल
समाप्त
करने
को
मजबूर
नहीं
होना
पड़ता,
और
देश
के
सबसे
कमजोर
लोगों
को
सूचना
के
अधिकार
अधिनियम
द्वारा
सशक्त
नहीं
बनाया
जा
सकता
था.”

दिलचस्प
बात
यह
है
कि
शंकरनारायणन
ने
कुछ
बिंदुओं
पर
ओबीसी
आरक्षण
का
विरोध
भी
किया
है
और
वर्तमान
आरक्षण
नीतियों
में
व्यापक
बदलाव
की
वकालत
की
है.
इस
पॉकेट
साइज
संविधान
की
पुस्तक
का
प्रस्तावना
लिखने
वाले
सर्वोच्च
न्यायालय
के
वरिष्ठ
अधिवक्ता
और
भारत
के
पूर्व
अटॉर्नी
जनरल
के.के.वेणुगोपाल
आपातकाल
को
याद
करते
हैं,
“जिसने
देश
को
सुनामी
की
तरह
प्रभावित
किया
और
यह
एहसास
दिलाया
कि
संविधान
को
पलटा
जा
सकता
है”.

पुस्तक
के
प्रस्तावना
भाग
में
उनके
विचार
स्पष्ट
हैं.
वह
लिखते
हैं,
“क्या
संविधान
के
निर्माताओं
ने
कभी
उन
झगड़ों,
विवादों,
टकरावों
की
कल्पना
की
होगी,
जो
इसके
प्रावधानों
को
लागू
करने
पर
उत्पन्न
होंगे?
उन्होंने
निस्संदेह,
उन
व्यापक
लाभों
की
कल्पना
की
होगी,
जो
भारत
के
संविधान
के
प्रावधानों
के
कार्यान्वयन
के
माध्यम
से
समाज
के
वंचित
वर्गों
को
प्राप्त
होंगे.
केंद्र
और
राज्यों
के
बीच
शक्तियों
का
बटवारा
करके
और
राज्य
के
तीन
अंगों
के
बीच
शक्तियों
के
पृथक्करण
के
माध्यम
से,
संविधान
निर्माताओं
को
यह
विश्वास
रहा
होगा
कि
केंद्र
या
राज्य
के
विभिन्न
अंगों
के
बीच
किसी
भी
संघर्ष
के
बिना
देश
शांति
के
साथ
आगे
बढ़ेगा.
क्या
वे
इससे
अधिक
गलत
हो
सकते
थे?”

आपातकाल
की
अवधि
का
संदर्भ
देते
हुए,
वे
आगे
कहते
हैं,
“शुरुआत
से
ही
विधायिका

कार्यपालिका
का
न्यायपालिका
से
टकराव
रहा.
न्यायपालिका
पर
आरोप
था
कि
उसनेे
कार्यपालिका
की
शक्तियों
का
अतिक्रमण
किया
है.”

वे
लिखते
हैं,
“तत्कालीन
कानून
मंत्री
ने
28
अक्टूबर,
1976
को
सर्वोच्च
न्यायालय
के
न्यायाधीशों
को
एक
सख्त
चेतावनी
जारी
करते
हुए
कहा
कि
उन
लोगों
ने
अपने
अधिकारों
का
अतिक्रमण
कर
टकराव
का
माहौल
बनाया.
अब
यह
सुनिश्चित
किया
जाना
चाहिए
कि
ऐसी
स्थिति
फिर
से

आए.
यदि
संविधान
संशोधन
के
बाद
भी
टकराव
जारी
रहा,
तो
मुझे
लगता
है
कि
यह
न्यायपालिका
के
लिए
एक
बुरा
दिन
होगा.
हम
न्यायपालिका
को
दूसरों
के
अधिकारों
का
अतिक्रमण
करने
से
रोकने
का
प्रयास
कर
रहे
हैं.”

उन्होंने
लिखा
है,
“यह
बात
आपातकाल
के
दौरान
कही
गई
थी,
जिसने
देश
को
सुनामी
की
तरह
प्रभावित
किया
और
यह
अहसास
कराया
कि
संविधान
को
तोड़ा
जा
सकता
है.
यह
सच
है
कि
सर्वोच्च
न्यायालय
ने
इस
अवसर
पर
कदम
नहीं
उठाया,
लेकिन
आपातकाल
हटने
के
बाद,
न्यायपालिका
ने
भारत
के
सर्वोच्च
न्यायालय
के
नेतृत्व
में,
यह
सुनिश्चित
करके
अपनी
प्रधानता
स्थापित
की
कि
संविधान
द्वारा
लोगों
को
हासिल
मानवाधिकार,
अभिव्यक्ति
की
स्वतंत्रता,
जीवन
की
स्वतंत्रता
का
अधिकार
आदि
पवित्र
माने
जाएं.”

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