
हाइलाइट्स
80
के
दशक
तक
भारतीय
रसोई
में
इस्तेमाल
होने
वाले
उपकरण
आमतौर
पर
बिजली
से
चलने
वाले
नहीं
होते
थेये
हाथ
से
काम
करने
वाले
होते
थे,
जो
पत्थर,
लोहे
और
लकड़ी
के
बने
होते
थे,
इन
पर
खाना
बनाने
का
काम
होता
थाअब
के
आधुनिक
मॉडुलर
किचन
में
उसमें
इस्तेमाल
की
जाने
वाली
कोई
चीज
नहीं
बची
है
इमाम
दस्ता,
मूसल,
सूप,
सिल
बट्टा,
पत्थर
की
चक्की,
हंसुआ,
बटुली,
सिकहर,
कठौती,
पीढ़ा…..
मौजूदा
पीढ़ी
को
शायद
ही
मालूम
हो
ये
क्या
है
और
किस
चीज
की
बात
हो
रही
हो
लेकिन
मुश्किल
25-30
साल
पहले
इन
चीजों
का
रोज
हमारी
रसोईं
में
इस्तेमाल
होता
था,
क्योंकि
ना
रसोईं
में
ना
आज
की
तरह
नए
गैजेट्स
और
उपकरण
थे
और
आधुनिक
बर्तन,
तब
ऊपर
की
यही
पारंपरिक
चीजों
से
रसोई
में
सुस्वादु
खाना
रोज
बनता
था.
अब
आधुनिक
मॉडुलर
किचन
में
इनमें
से
कोई
भी
चीज
नहीं
मिलती.
ये
बात
सही
है
कि
90
के
दशक
में
जब
देश
में
उदारीकरण
और
बाजारवाद
ने
दस्तक
देनी
शुरू
की
तो
देश
बदलने
लगा.
आमदनी
बढ़ी
तो
घर
बदलने
लगे.
और
बदलने
लगी
घर
की
तमाम
चीजें.
इसी
वजह
से
90
के
दशक
से
भारतीय
घर,
जीवनशैली
बहुत
बदली.
अब
तक
तो
ये
360
डिग्री
बदल
चुकी
है.
लेकिन
सबसे
ज्यादा
कुछ
बदली
तो
वो
है
हमारी
रसोईं.
अब
उस
रसोई
का
कोई
भी
सामान
हमारे
किचन
में
नहीं
है,
जो
03
दशक
तक
अनिवार्य
तौर
पर
हुआ
ही
करता
था.
भारत
के
मशहूर
फूड
हिस्टोरियन
केटी
अचाया
अपनी
किताब
इंडियन
फूड
–
एक
हिस्टोरिकल
केंपेनियन(
Indian
Food:
A
Historical
Companion)
में
तो
इसका
जिक्र
करते
ही
हैं
साथ
ही
वो
पीढ़ी
भी
जो
अब
उम्र
के
हिसाब
से
चौथे
या
पांचवें
दशक
में
पहुंच
रही
है,
उन्हें
काफी
हद
तक
अपने
पुरानी
रसोइयों
का
अंदाज
होगा
ही.
हो
सकता
हो
कि
गांवों
की
रसोइयों
में
अब
भी
इनमें
कुछ
बचा
हो.
70
और
80
के
दशक
तक
हमारे
घरों
में
रसोईघर
जिस
तरह
का
होता
था,
उनमें
जिस
तरह
खाना
पकता
था,
जिस
तरह
के
उपकरण,
सामान
और
बर्तनों
का
इस्तेमाल
होता
था,
वो
सब
अब
देखने
को
शायद
ही
मिलें.
आज
के
किचन
से
उस
पुराने
किचन
का
मिलान
करिए
तो
पता
लगेगा
कि
हम
कितना
कुछ
पीछे
छोड़
आए
हैं.
सिलबट्टा,
इमाम
दस्ता,
हंसुआ,
पत्थर
की
चक्की
अक्सर
मुझे
वो
पारंपरिक
रसोइयां
याद
आ
जाती
हैं.
उनमें
तब
एक
ओर
मिट्टी
का
घड़ा,
पीतल
का
कलशा.
लोहे
की
बाल्टी
होती
थी.
ये
पीने
के
पानी
और
किचन
के
काम
के
लिए
होती
थी.
दूसरी
ओर
सिलबट्टा,
इमाम
दस्ता
(खल
बट्टा),
हंसुआ,
पत्थर
की
चक्की,
मट्ठे
को
मथने
वाला
गोल
सा
मिट्टी
का
बर्तन,
दीवार
पर
लटका
हुआ
सूपा,
रस्सी
से
लटकी
हुई
सिलचर
और
चलनी
याद
आ
जाती
है.
कनस्तर
औऱ
डालडा
के
खाली
डिब्बों
में
सामान
मसालों
और
तेल
के
सामान
के
लिए
एक
छोटी
सी
लोहे
और
जाली
की
अलमारी.
कुछ
कनस्तर,
डालडा
के
कुछ
खाली
डिब्बों
में
भरी
खाद्य
सामग्रियां.
इसी
रसोईघर
में
एक
ओर
बर्तन
का
प्लेटफार्म
या
बर्तन
का
झाबा.
इन्हीं
के
बीच
दो-तीन
तरह
के
चूल्हे.
केवल
इतना
ही
नहीं
खाना
का
काम
इन्हीं
कमरानुमा
रसोइयों
में
ही
लकड़ी
के
पीढों
पर
बैठकर
होता
था.
कितनी
तरह
के
चूल्हे
70
के
दशक
तक
भारत
की
बहुत
कम
रसोइयों
में
गैस
आधारित
चूल्हे
आए
थे.पीतल
के
स्टोव
थे,
जिसमें
पिन
वाली
नॉब
से
उसकी
लपटों
को
सेट
करना
होता
था.
हालांकि
केरोसिन
आयल
के
स्टोव्स
में
भी
बाद
में
काफी
इनोवेशन
हुए.
लकड़ी
वाले
चूल्हों
का
ज्यादा
इस्तेमाल
होता
था.
साथ
में
कोयले
और
लकड़़ी
के
बुरादे
वाली
अंगीठियां.
कई
बार
चूल्हे
में
जब
लकड़ी
आग
नहीं
पकड़ती
थी
तो
उस
पर
कैरोसिन
या
गोबर
के
उपलों
के
जरिए
आग
लगाई
जाती
थी.
पता
नहीं
कितने
लोगों
को
बुरादे
वाली
अंगीठियों
की
याद
हो.
बुरादे
की
अंगीठियों
के
साथ
लकड़ी
के
बड़े
टाल
अब
तो
खैर
लकड़ी
के
बड़े
टाल
नहीं
होते.
एक
जमाना
था,
जब
शहरों
से
लेकर
कस्बों
तक
में
लकड़ी
के
बड़े
बड़े
टाल
होते
थे.
मशीनों
से
जब
लकड़ियां
काटीं
जाती
थीं
तो
बड़े
पैमाने
पर
उनका
पाउडर
निकलता
था,
जिसे
बुरादा
कहा
जाता
था.
इस
बुरादे
को
एक
अंगीठी
में
सांचा
लगाकर
भरा
जाता
था.
फिर
इसमें
नीचे
लकड़ी
डालकर
इसे
जलाया
जाता
था.
जब
बुरादा
सुलगने
लगता
था
तो
ईंधन
काफी
ऊष्मा
देता
था.
जब
से
लकड़ियों
को
काटने
पर
रोक
लगा
दी
गई
तो
ये
टाल
भी
गायब
हो
गए.
अब
ये
अतीत
का
हिस्सा
बन
चुके
हैं.
भारत
में
कब
आया
था
पहला
एलपीजी
वैसे
तो
भारत
में
गैस
आधारित
रसोईंघर
के
ईंधन
की
शुरुआत
कोलकाता
1919
में
हुई.
ओरिएंटल
नाम
की
एक
विदेशी
कंपनी
स्टोव,
गैस
और
कोयले
से
चलने
वाले
चूल्हों
के
रेंज
लेकर
आईं.
गैस
ईंधन
में
ज्यादा
दिलचस्पी
70
के
दशक
के
आखिर
में
जगनी
शुरू
हुई.
तब
तक
देश
में
नाममात्र
के
गैस
कनेक्शन
थे.
1930
में
पहली
बार
बांबे
क्रानिकल
अखबार
में
में
कुक
विद
गैस
के
विज्ञापन
छपे.
अब
तो
खैर
घरों
में
ना
तो
आमतौर
पर
स्टोव
दिखेगा
और
ना
ही
दूसरी
अंगीठियां.
गांव
में
जरूर
अब
भी
चूल्हे
मिल
सकते
हैं.
वैसे
अब
तो
ज्यादातर
किचन
में
अब
कई
बर्नर
वाले
गैस
के
चूल्हे,
इलैक्ट्रिक
चिमनी,
बिजली
के
इंडक्शन,
माइक्रोवेव
ओवन
और
कुकिंग
रेंज
मिल
जाएंगे.
अलबत्ता
पुराने
जमाने
का
कुछ
नहीं
दिखेगा.
सिलबट्टे
पर
पीसा
मसाला
किचन
में
उन
सालों
में
वाकई
काम
बहुत
मुश्किल
था.
मसालों
को
सिल
बट्टे
पर
पीसना
होता
था.
हालांकि
मसाले
का
ये
पेस्ट
काफी
लजीज
और
स्वादभरी
सब्जियां
बनाता
था.इसे
जब
तेल
या
घी
में
भुना
जाता
था,
तो
उसी
फैलती
सुगंध
लाजवाब
होती
थी.
बहुत
से
लोगों
को
इस
पीसे
हुए
मसाले
से
आज
भी
प्यार
है.
जरूरी
खड़े
मसालों
को
सिल
पर
रखकर
पानी
के
छींटे
डालकर
पीसा
जाता
था.
इसमें
कटे
प्याज
और
लहसुन
भी
पसंद
के
अनुसार
मिलाकर
पीसे
जाते
थे.
सिलबट्टे
अब
बहुत
कम
इस्तेमाल
होते
हैं,
क्योंकि
अब
ज्यादा
घरों
में
खड़े
मसाले
इस्तेमाल
नहीं
होते.
मिक्सचर
ग्राइंडर
यूज
में
लाए
जाते
हैं.
70
के
दशक
तक
आमतौर
पर
घरों
में
पीसे
मसालों
के
पैकेट
का
कम
इस्तेमाल
होता
था.
बाद
में
ये
बढ़ते
चले
गए.
खलमूसर
और
सूप
रसोईंघर
में
लोहे
का
इमाम
दस्ता
गजब
का
उपकरण
होता
था,
जिसमें
खड़े
मसालों
से
लेकर
बहुत
कुछ
कूटा
जा
सकता
था.
धान
और
कुछ
अनाज
कूटने
के
लिए
लकड़ी
के
बड़े
खल-मूसर
होते
थे.
ये
सब
भी
अब
नए
दौर
के
किचन
में
मिलने
का
सवाल
ही
नहीं
है.
इनका
काम
अब
ग्राइंडर
मिक्सर
कर
देता
है.
सूपा
के
बारे
में
नई
पीढ़ी
शायद
जानती
हो,
पहले
ये
हर
रसोईघर
में
अनिवार्य
तौर
पर
होता
था.
इससे
रोज
अनाज,
दालें
तमाम
खाद्य
पदार्थ
फटके
जाते
थे.
महिलाएं
इसका
इस्तेमाल
इतने
सटीक
अंदाज
में
करती
थीं
कि
कुछ
ही
मिनटों
में
सूपा
से
अनाज,
दाल
या
दूसरी
चीजें
साफ
कर
लेती
थीं.
चलनी
भी
जरूरी
थी,
इससे
पीसे
हुए
अनाज
फिल्टर
किए
जाते
थे.
मिट्टी
के
घड़े
और
सुराही
मिट्टी
के
घड़े
भी
अब
कहां
नए
किचन
में
दिखेंगे.
पीतल
और
कांसे
के
हंडे
और
कलशे
भी
नजर
नहीं
आएंगे.
पानी
अब
आरओ
में
स्टोर
होता
है
या
वाटरजग
में.
बहुत
बिरले
होंगे,
जो
किचन
में
अब
मिट्टी
के
घड़े
रखते
हों.
तब
गरमी
के
दिनों
की
शुरुआत
होते
ही
किचन
और
घरों
के
कई
कमरों
में
सुराहियां
रख
दी
जाती
थीं.
जो
पानी
का
अच्छा
खासा
शीतल
करती
थीं,
जिनका
पानी
गला
कभी
नहीं
पकड़ता
था.
हैरानी
होती
है
कि
तब
नल
का
पानी
और
कुओं
से
निकला
पानी
इतना
साफ
कैसे
होता
था
कि
कभी
फिल्टर
और
आरओ
की
जरूरत
ही
नहीं
होती
थी.
इनका
तो
तब
कांसेप्ट
ही
नहीं
था
तब.
अब
अगर
पानी
प्रदूषित
और
गंदा
हो
गया
है,
पीने
लायक
नहीं
है.
फूल
के
बर्तन,
बटुली
और
भगोने
तब
किचन
में
स्टील
और
एल्यूमिनियम
के
सामान
भी
इस्तेमाल
नहीं
होते
थे.
स्टील
का
भी
ज्यादा
रिवाज
नहीं
था.
पीतल
और
कांसे
के
ही
बर्तन
होते
थे.
कुछ
बर्तन
फूल
वाले
होते
थे,
भगोने,
बटुली
और
कढाई
खाना
के
अलग
व्यंजनों
को
पकाने
में
इस्तेमाल
होते
थे,
तो
इन
सबके
बीच
होती
थी
एक
सड़सी,
जिससे
भगौने
से
लेकर
बटूली
को
पकड़
कर
उतार
लो
या
बर्तन
पर
कोई
चीज
ढंकने
के
काम
इस्तेमाल
हो
रही
हो
तो
उसे
हटा
सको.
तब
पत्थर
की
चक्की
हर
रसोईं
में
होनी
जरूरी
थी.
मक्के
से
लेकर
चना
तक
बहुत
कुछ
उसमें
दरा
जाता
था.
इसको
चलाना
आसान
तो
नहीं
होता
था
लेकिन
भुजाओं
को
ताकत
जरूर
देता
था.
घरों
में
मट्ठा
निकालने
के
लिए
खास
बर्तन
में
मथनी
का
इस्तेमाल
होता
था.
कई
दिनों
की
रखी
मलाई
को
पानी
के
साथ
मथना
तो
पड़ता
था
लेकिन
जब
सफेद
झाग
के
साथ
क्रीम
ऊपर
आती
थी,
तो
उसको
खाने
का
आनंद
अलग
होता
था.
मथनी
से
निकलने
वाला
मक्खन
मक्खन
बेशक
पैकेट
में
घर
ले
आइए
लेकिन
जिसने
वो
भी
मक्खन
खाया
है,
उसे
उसकी
मिठास
और
आनंद
का
अंदाज
है.
मट्ठा
बहुतायत
में
निकलता
था.
अब
तो
मट्ठा
पैकेट
में
ही
आने
लगा
है.
ये
पक्का
है.
हर
घर
में
पहले
इसी
मक्खन
को
गर्म
करके
शुद्ध
घी
बना
लिया
जाता
था.
मैं
ये
नहीं
कह
रहा
हूं
कि
ये
अब
नहीं
होता,
जरूर
होता
होगा
लेकिन
बहुत
कम
घरों
में,
आमतौर
पर
उन
घरों
में
जहां
अब
भी
पुरानी
रिवायतें
चल
रही
हैं
या
पुरानी
गृहस्थियां
मिली
जुली
रसोई
के
साथ
बरकरार
हैं.
हंसुआ
और
उन
दिनों
के
चाकु
अब
बात
हंसुआ
की
यानि
रसोई
में
चाकू
की
करामाती
नानी.
इससे
कटहल
से
साग
काट
लीजिए,
कद्दू
और
पीठा
काट
लीजिए.
अगर
अचार
बनाने
हों
तो
फटाफट
हरे
आम
इसके
नीचे
रखिए
और
काटती
जाइए.
उन
दिनों
किचन
में
दो
तीन
तरह
के
चाकू
होते
थे.
एक
बड़ा,
एक
नार्मल
और
एक
ऐसा
चाकू,
जिससे
फटाफट
छिलके
हटाए
जा
सकें.
चिप्स
वगैरह
काटने
के
लिए
अलग
सांचा
आता
था.
पुरानी
पाकशालाओं
के
बारे
में
कहा
जाता
था
कि
उसमें
कम
से
कम
06-07
तरह
के
चाकू
इस्तेमाल
होते
थे.
अलग
अलग
प्रवृत्ति
की
चीजों
के
लिए
अलग
धार
का
चाकू.
आधुनिक
शेफ
शायद
12-13
चाकुओं
के
सेट
का
इस्तेमाल
करते
हैं.
सही
मायनों
में
चाकू
ही
रसोईघर
की
ऐसी
चीज
है,
जिसने
हमारा
साथ
पत्थरकालीन
उस
युग
से
निभाया,
जब
हमारे
पैर
सभ्यता
की
ओर
नहीं
पड़े
थे.
इतिहासकारों
को
कुछ
चाकूनुमा
औजारों
के
२५
लाख
वर्ष
से
भी
पुराने
अवशेष
मिले
हैं.
प्राचीन
मानवों
ने
सबसे
पहले
छुरे
पत्थरों
को
तराशकर
धार
देकर
बनाए
थे,
लेकिन
बाद
में
धातुओं
का
प्रयोग
शुरू
हुआ.
क्या
होती
थी
कठौती
कठौती
लकड़ी
का
परातनुमा
बर्तन
होता
था,
जिसमें
आटा
साना
जाता
था.
इनमें
कपड़े
में
लपेटकर
रोटियां
भी
रखी
जाती
थीं.
सिकहर
रस्सी
से
बना
वो
जुगाड़
होता
था,
जिसे
छत
या
दीवार
पर
कील
के
सहारे
टांगा
जाता
था,
इसमें
दूध,
दही
रखा
जाता
था
ताकि
ये
बिल्ली
की
जद
से
दूर
रहे.
चीनी
मिट्टी
का
मर्तबान
भी
किचन
का
जरूरी
हिस्सा
होता
था.
तब
तरह-तरह
के
अचार
बनाए
जाते
थे
और
बड़े
मर्तबानों
में
रखे
जाते
थे.
बटलोई
या
बटुली
एक
ऐसा
बर्तन
होता
था
जिसमें
दाल
पकाई
जाती
थी.
गोलाकार
और
ऊपर
से
संकरे
मुंह
वाली.
ये
आमतौर
पर
फूल
के
बर्तन
की
होती
थी.
Tags:
Community
kitchen,
Culture,
Food,
Indian
Culture
FIRST
PUBLISHED
:
May
20,
2024,
10:07
IST