…जब निर्दल नेता ने 827 रुपए-बारह आने में जीत ली थी बिल्हौर सीट

…जब निर्दल नेता ने 827 रुपए-बारह आने में जीत ली थी बिल्हौर सीट
…जब निर्दल नेता ने 827 रुपए-बारह आने में जीत ली थी बिल्हौर सीट


1957
में
हुए
लोकसभा
चुनाव
में
कुछ
इस
तरह
मतों
की
ग‍िनती
हुई
थी.

कानपुर
ज़िले
की
बिल्हौर
लोकसभा
सीट
से
जगदीश
अवस्थी
1957
में
निर्दलीय
जीते
थे.
उन्होंने
कांग्रेस
के
कद्दावर
नेता
तिवारी
वेंकटेश
नारायण
को
हराया
था.
हालांकि
जीत-हार
का
अंतर
दो
प्रतिशत
से
भी
कम
का
था
फिर
भी
इसे
चमत्कार
कहा
जाएगा,
कि
एक
निर्दल
नेता
ने
उस
समय
कांग्रेस
को
हरा
दिया.
जगदीश
अवस्थी
ने
हिसाब
दिया
था,
कि
उस
चुनाव
में
उनके
महज
827
रुपये
75
पैसे
खर्च
हुए
थे.
आज
से
67
वर्ष
पहले
की
यह
रकम
आज
की
कोई
चार-पांच
लाख
रुपये
के
बराबर
होगी.
क्या
आज
इस
रकम
से
लोकसभा
तो
दूर
पार्षदी
का
चुनाव
भी
जीता
जा
सकता
है?
कुछ
विशेष
क्षेत्रों
से
तो
अक्सर
सुनने
को
मिलता
है,
कि
अमुक
ने
प्रधानी
के
चुनाव
में
एक
करोड़
रुपए
खर्च
किए.
अब
राजनीति
में
यह
सादगी
और
ईमानदारी
कितनी
कठिन
हो
गई
है?

2019
के
लोकसभा
चुनाव
उसके
पूर्व
हुए
सभी
चुनावों
से
महंगा
था.
उस
चुनाव
में
60000
करोड़
रुपये
खर्च
हुए
थे,
लेकिन
2024
के
लोकसभा
चुनाव
में
एक
लाख
करोड़
रुपये
तक
खर्च
होने
का
अनुमान
है.
चुनाव
खर्च
अनुत्पादक
खर्चों
में
आता
है.
अगर
भारत
जैसे
गरीब
देश
में
चुनाव
इतना
महंगा
हो
जाएगा,
तो
गरीब
आदमी
तो
चुनाव
लड़
ही
नहीं
सकता.
इस
वर्ष
चुनाव
आयोग
ने
घोषणा
की
है
कि
कोई
भी
प्रत्याशी
निजी
तौर
पर
95
लाख
रुपये
खर्च
कर
सकता
है.
यह
खर्च
उसकी
पार्टी
द्वारा
खर्च
की
गई
रकम
से
अलग
है.
इतनी
बड़ी
रकम
के
आगे
एक
आम
आदमी
कहां
से
इतना
पैसा
लाएगा?
जाहिर
है,
अब
चुनाव
आम
लोगों
के
वश
का
नहीं
रहा.
ऐसा
भी
नहीं
कि
पहले
आम
चुनाव
अर्थात्
1952
में
चुनाव
फ्री
में
लड़े
जाते
थे.
उस
समय
भी
चुनाव
आयोग
ने
खर्च
की
सीमा
25
हजार
रुपए
तय
की
हुई
थी.

हर
अगले
चुनाव
में
प्रत्याशी
की
संपदा
बढ़
जाती
है

लेकिन
तब
25
हजार
के
भीतर
चुनाव
निपट
जाता
था.
अब
95
लाख
की
रकम
सिर्फ
कागजी
है.
चुनाव
में
जितना
खर्च
होता
है,
उसे
कभी
बताया
नहीं
जाता.
भले
ही
यह
नियम
हो
कि
चुनाव
संपन्न
हो
जाने
के
30
दिनों
के
भीतर
प्रत्याशी
को
अपने
खर्च
का
ब्योरा
चुनाव
आयोग
को
देना
पड़ता
हो.
ऐसा
नहीं
करने
पर
कोई
भी
लोक
प्रतिनिधि
अधिनियम
1951
की
धारा
10
(ए)
के
तहत
3
साल
की
सजा
के
हकदार
होगा.
पर
कितने
प्रत्याशी
अपनी
इस
शपथ
पर
खरे
उतरते
हैं.
इसकी
वजह
है
कि
आज
की
तारीख
में
हर
प्रत्याशी
करोड़पति
है
और
हर
चुनाव
के
बाद
उसकी
संपदा
बढ़
जाती
है.
जाहिर
है,
राजनीति
आज
के
समय
लोक
सेवा
नहीं
बल्कि
लाभ
का
धंधा
है.
यही
कारण
आज
के
जन
प्रतिनिधि
बौने
होते
जा
रहे
हैं.
संसद
में
उनके
द्वारा
पूछे
गये
सवाल
या
तो
रस्मी
होते
हैं
अथवा
पैसे
ले
कर
पूछे
गए
होते
हैं.
पिछले
दिनों
ऐसा
ही
एक
आरोप
एक
माननीय
महिला
सांसद
पर
लगा
भी
था.

पहले
विरोधियों
पर
हमला
बिलो

बेल्ट
नहीं
होता
था

पहले
आम
चुनाव
के
समय
(1952)
एक-दो
राजे-रजवाड़ों
के
सिवाय
कोई
भी
प्रत्याशी
करोड़पति
नहीं
था.
अधिकतर
आज़ादी
की
लड़ाई
से
निकले
राजनेता
थे.
भले
ये
किसी
दल
से
हों
लेकिन
सादगी,
ईमानदारी
और
जनता
के
प्रति
समर्पण
भाव
सब
में
था.
कोई
भी
जन
प्रतिनिधि
अपना
निजी
घर
भरने
के
लिए
चुनाव
में
नहीं
उतरता
था.
साफ़-सुथरी
राजनीति
थी.
अब
जो
बाहुबली

हो
अथवा
अनाप-शनाप
खर्च
कर
वोट
मैनेज

कर
सकता
हो
उसका
चुनाव
जीतना
असंभव
है.
पहले
से
चौथे
आम
चुनाव
(1952,
1957,
1962,
1967)
तक
मतदाताओं
को
खिला-पिला
कर
वोट
लेने
की
शिकायतें
कम
सुनने
को
मिलती
थीं.
कांग्रेस,
जनसंघ
(भाजपा
का
तत्कालीन
रूप),
भाकपा
(CPI)
और
समाजवादी
दलों
(संसोपा
और
प्रसोपा)
में
कोई
भी
वोट
हथियाने
या
खरीदने
के
लिए
उद्यत
नहीं
रहता
था.
अलबत्ता
विरोधियों
पर
हमला
खूब
होता
था.
लेकिन
कोई
भी
उम्मीदवार
अपने
विरोधी
पर
बिलो

बेल्ट
हमला
नहीं
करता
था.

विरोधी
की
जीप
ले
गए
थे
राजा
महेंद्र
प्रताप

मथुरा
के
वरिष्ठ
पत्रकार
प्रोफ्रेसर
अशोक
बंसल
एक
मजेदार
बात
बताते
हैं.
वर्ष
1957
में
मथुरा
लोकसभा
सीट
से
कांग्रेस
के
चौधरी
दिगंबर
सिंह
चुनाव
लड़
रहे
थे
और
सामने
थे
निर्दलीय
राजा
महेंद्र
प्रताप.
राजा
महेंद्र
प्रताप
मथुरा
में
रहते
थे
और
उनके
पास
एक
कार
हुआ
करती
थी.
जबकि
चौधरी
दिगंबर
सिंह
डेंपियर
रोड
में
रहते
थे,
उनके
पास
जीप
थी.
एक
दिन
राजा
महेंद्र
प्रताप
अपने
प्रतिद्वंदी
चौधरी
दिगंबर
सिंह
के
घर
गए
और
चौधरी
साहब
से
बोले,
दिगंबर
मैं
तेरी
जीप
ले
जा
रहा
हूँ.
अपनी
कार
तेरे
घर
पर
छोड़
रहा
हूं.
कार
गांवों
की
गलियों
में
फंस
जाया
करती
है.
इसके
बाद
चुनाव
संपन्न
हो
जाने
तक
जीप
राजा
साहब
के
पास
रही.
राजा
साहब
चुनाव
जीत
गए
तो
उनको
जीत
की
पहली
माला
चौधरी
दिगंबर
सिंह
ने
पहनायी.
तब
यह
हुआ
करता
था
प्रतिद्वंदी
का
सम्मान.
मन
में
कोई
कलुष
नहीं.

चार
बार
सादगी
से
जीतते
रहे
बनर्जी
दादा

1957
से
1977
तक
कानपुर
सीट
से
में
मजदूर
नेता
एसएम
बनर्जी
चुनाव
जीतते
थे.
वे
बंगाली
थे
और
कानपुर
में
बंगलियों
की
आबादी
मुश्किल
से
15000
रही
होगी.
वे
निर्दलीय
लड़ते
थे
और
जीतते
थे.
जबकि
1952
से
1957
के
बीच
वहां
तीन
बार
चुनाव
हुए.
आम
चुनाव
में
मजदूर
नेता
और
कांग्रेस
की
टिकट
पर
लड़
रहे
हरिहर
नाथ
शास्त्री
जीते.
1953
में
प्लेन
क्रैश
में
उनकी
मृत्यु
हो
गई.
इसके
बाद
उपचुनाव
में
कांग्रेस
के
शिव
नारायण
टंडन
को
जीत
मिली.
कानपुर
के
वरिष्ठ
पत्रकार
महेश
शर्मा
ने
बताया
कि
नवीन
मार्केट
के
समीप
स्थित
म्योर
मिल
को
प्रबंधन
ने
बंद
करने
का
फैसला
किया.
शिव
नारायण
टंडन
ने
मिल
के
गेट
पर
एक
मीटिंग
की
और
मजदूरों
को
भरोसा
दिलाया
कि
वे
प्रधानमंत्री
जवाहर
लाल
नेहरू
से
इस
मिल
को
चालू
कराने
का
आग्रह
करेंगे.
मिल
में
सरकारी
रिसीवर
बिठवा
देंगे.

वायदा
पूरा

कर
पाने
पर
शिव
नारायण
टंडन
ने
लोकसभा
छोड़ी

पर
दुर्भाग्य
से
वे
अपने
वायदे
को
पूरा
नहीं
कर
पाए.
नेहरू
जी
उनकी
बात
से
सहमत
नहीं
हुए.
टंडन
जी
ने
लोकसभा
से
इस्तीफा
दे
दिया.
और
मिल
गेट
पर
फिर
एक
सभा
की
और
अपना
निर्णय
बता
दिया.
1956
में
फिर
कानपुर
में
लोकसभा
के
लिए
उपचुनाव
हुआ.
कांग्रेस
ने
छैलबिहारी
दीक्षित
कंटक
को
प्रत्याशी
बनाया
तथा
प्रजा
सोशलिस्ट
पार्टी
ने
स्वतंत्रता
सेनानी
और
मजदूर
नेता
राजाराम
शास्त्री
को.
शास्त्री
जी
ने
यह
उपचुनाव
जीत
लिया.
अब
हर
दल
को
समझ

गया
कि
कानपुर
में
कोई
मजदूर
नेता
ही
जीत
सकता
है.
इसलिए
1957
के
आम
चुनाव
में
कामरेड
एसएम
बनर्जी
निर्दलीय
चुनाव
लड़े
और
उनके
सामने
कांग्रेस
ने
भी
ट्रेड
यूनियन
लीडर
सूरज
प्रकाश
अवस्थी
को
लड़ाया.
अवस्थी
इंटक
(कांग्रेस
का
मजदूर
संगठन)
के
नेता
थे
और
एसएम
बनर्जी
एटक
(सीपीआई
का
मजदूर
संगठन).
इस
चुनाव
में
बनर्जी
को
जीत
मिली.

चुनाव
अब
करोड़ों
में
होते
हैं

इसके
बाद
1962
में
बनर्जी
ने
कांग्रेस
के
स्वतंत्रता
सेनानी
बंगाली
नेता
बीके
सिन्हा
को
हराया.
1967
में
कांग्रेस
ने
कानपुर
से
मजदूर
नेता
गणेश
दत्त
बाजपेयी
को
बनर्जी
के
विरुद्ध
खड़ा
किया.
तब
तक
कम्युनिस्ट
पार्टी
भाकपा
(CPI)
और
माकपा
(CPM)
में
बंट
गई
थी.
इन
दोनों
में
द्वन्द
था
इसलिए
माकपा
ने
प्रसिद्ध
मजदूर
नेता
कामरेड
रामासरे
को
उनके
विरुद्ध
टिकट
दिया.
तितरफा
लड़ाई
में
भी
कामरेड
बनर्जी
जीत
गए.
1971
में
कांग्रेस
ने
एसएम
बनर्जी
को
समर्थन
दिया.
क्योंकि
तब
प्रधानमंत्री
इंदिरा
गांधी
का
भाकपा
से
समझौता
था.
1977
में
बनर्जी
बाबू
जनता
पार्टी
के
मनोहर
लाल
से
हार
गए.
बनर्जी
बाबू
के
पास
पैसा
नहीं
था
और

ही
भाकपा
अपने
प्रत्याशियों
को
धन
मुहैया
करवा
पाती
थी.
इसके
बावजूद
इस
तरह
की
जीत
बताती
थी
कि
तब
करोड़ों
रुपए
बहा
कर
चुनाव
नहीं
लड़े
जाते
थे.